ग्रह निर्धारित करते हैं आपका व्यक्तित्व (भाग 2)

पिछले लेख में आपने जाना कि भारतीय वैदिक ज्योतिष में मानव मस्तिष्क को 42 विभिन्न भागों में बांटा गया है। जो कि सोचने,सीखने,याद रखने,अनुभव करने,प्रतिक्रिया करने आदि अनेक मानसिक शक्तियों तथा प्रक्रियाओं के अलग-अलग केन्द्र हैं।अब जानते हैं कि किस प्रकार किसी मनुष्य की जन्मकुंडली के भिन्न भिन्न भावों में बैठे हुए ग्रह उस व्यक्ति के मस्तिष्क को नियंत्रित एवं संचालित करते हैं।जिसके कारण उस मनुष्य में विभिन्न मानसिक शक्तियों,गुण-दोषों,प्रवृ्तियों आदि का विकास होता है।
1. अगर कुण्डली के लग्न अर्थात प्रथम भाव में दशमेश अर्थात दसवें भाव का स्वामी विधमान हो तो वह मस्तिष्क के प्रथम(कामेच्छा), द्वितीय(विवाहेछा) तथा 37वें भाग(राग-विराग) को प्रभावित करता है, जिस कारण उस मनुष्य के मस्तिष्क में विवाह की तीव्र इच्छा जागृ्त होती है। दशमेश द्वारा प्रेरित प्रणय मध्यम श्रेणी का होता है। जिस कारण प्रणय पात्र से प्रेम एवं सहानुभूति की अपेक्षा उसमे कामुकता और स्वार्थलोलुपता की भावना ज्यादा रहती है।
2.यदि द्वितीय भाव में भाग्येश अर्थात नवम भाव का स्वामी हो तो मस्तिष्क के द्वितीय तथा 38वें भाग को अपनी तरंगों के माध्यम से प्रभावित करता है, जिसका सीधा संबंध प्रणय शक्ति और भाषा एवं ज्ञान से है। यही ग्रह जातक की छब्बीस वर्ष की आयु के बाद प्रणय का कार्यभार संभालता है और सत्तर वर्ष की आयु तक काम-वासना को तरंगित करता है।इस अवस्था में जातक के अन्दर विवाह की इच्छाशक्ति प्रबल होती है और छतीसवें वर्ष के बाद काम-वासना का प्रवाह शरद सरिता के समान निर्मल तथा संयत होता है। फलत: जीवन के अन्त तक प्रणय संबधों में मधुरता बनी रहती है।38वें केन्द्र के स्पंदन के कारण इस व्यक्ति के मन में किसी विदेशी भाषा एवं नवीन विषय को सीखने की ललक तथा जिज्ञासा उत्पन्न होती है।
3.यदि सप्तमेश अर्थात सातवें भाव का स्वामी लग्न में विराजमान हो तो वो मस्तिष्क के प्रथम भाग को स्पंदित करता है, जिसका संबंध कामेच्छा से होता है। इसी कामेच्छा के कारण विपरीत लिंग के प्रति प्रेम-वासना सोलह वर्ष की आयु तक पूर्ण विकसित हो जाती है जो कि छतीस वर्ष की आयु तक अदम्य रूप से प्रबल रहती है। उसके पश्चात वो शनै: शनै: भोग से योग की ओर बढने लगता है।
4. अगर लग्नेश कुण्डली के तृ्तीय भाव में स्थित हो तो वह मस्तिष्क के तीसरे(प्रेमांकुरण),17वें(न्यायप्रियता),27वें(मानसिक एकाग्रता)तथा 39वें भाग(अन्वेषण शक्ति) को तरंगित करता है, जिसके फलस्वरूप जातक के मन में प्रेमांकुरण शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। यहां से फूट फूट कर प्रेम का झरना उदगम स्त्रोत्र से निकलती हुई नदी की भांती निर्झर बहता चला जाता है। आप इसे बचपन का अपने कौटुम्बीजनों के प्रति प्रेम कह सकते हैं, जो कि जातक को 15 वर्ष की आयु तक मातृ-पितृ स्नेह,वात्सल्य के रूप में बहुत भारी मात्रा में प्राप्त होता है।वह अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति से सदैव अच्छाई की आशा रखता है।वह सूक्ष्म अन्वेषण द्वारा किसी विषय की गहराई में जाकर वास्तविकता जानने को सदैव लालायित रहता सफल है।
5.यदि लग्नेश चतुर्थ भाव में मौजूद हो तो उसका प्रभाव मस्तिष्क के चतुर्थ भाग पर ही पडता है।जहां पर मैत्री भाव एवं विध्वंस शक्ति का केन्द्र स्थित है। यहां बैठा चतुर्थेश जातक में मैत्री भावना को विकसित करता है। यह भावना समलिंगी या फिर विपरीतलिंगी के प्रति भी हो सकती है, किन्तु ऎसी भावना सदैव वासना से रहित होती है। इस प्रकार का जातक अपने मित्रों के दोषों को छुपाने तथा गुणों को उजागर करने में कुशल होता है।किन्तु विध्वंसक शक्ति का केन्द्र भी होने के कारण जातक अपने जीवन में जो कुछ भी अर्जित करता है आयु के 29वें वर्ष से लेकर 33वें तथा 41 से 44 के मध्य स्वयं के कर्मों के फलस्वरूप उसे शनै शनै तबाह कर देता है।
6.यदि भाग्येश कुण्डली के पंचम भाव में हो तो वह मस्तिष्क के 5वें(देशप्रेम)15वें(स्वाभिमान), तथा22वें(मेघा शक्ति)केन्द्रों को स्पंदित करके मनुष्य के अन्दर देशप्रेम की भावना,स्वाभिमान एवं मेधा बुद्धि को जागृ्त करता है।यहां प्रेम के 2 प्रकार हैं- प्रथम व्यक्ति प्रेम एवं द्वितीय स्थान प्रेम। यहां प्रथम प्रकार का प्रेम व्यक्ति विशेष से संबंधित है, जिसमे स्थान महत्वपूर्ण नहीं तथा न ही घर से कोई सरोकार। ऎसे प्रेम की तुलना आप कुत्ते से कर सकते हैं, जो कि स्वामिभक्त होता है।दूसरे प्रकार का प्रेम किसी व्यक्ति की अपेक्षा स्थान से होता है, जिसकी तुलना बिल्ली से की जा सकती है।जब भाग्येश मस्तिष्क के इस 5वें केन्द्र को प्रभावित करता है तो जातक में प्रेम के दोनो ही स्वरूप विकसित होते हैं।ऎसे व्यक्तियों की पेशानी चौडी होती है,उनके मस्तक के सामने का भाग कुछ उभरा हुआ होता है।
7. अगर द्वादशेश अर्थात बाहरवें भाव का स्वामी लग्न में स्थित हो तो वह मस्तिष्क के छठे भाग को प्रभावित करता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य में समर्पण एवं किसी कार्य को करने की लगन की प्रवृ्ति का विकास होता है। और वह जिस वस्तु के प्रति लगन हो, उसे प्राप्त करने के लिए सब कुछ करने को तैयार रहता है।ऎसा व्यक्ति अगर किसी कार्य को हाथ में ले ले तो उसे पूरा किए बिना नहीं छोडता है।
आप पढने में किसी प्रकार की असुविधा अनुभव न करें , इसीलिए लेख की लम्बाई को देखते हुए आज यहीं समाप्त करता हूं

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